रह जाती है मुरादें बामुक़म्मल, मंजिली राहगीरी में।

मुसाफ़िर के नसीब में कहाँ मुरादें मुकम्मल होती है।

उठ भी जो आएँ समुद्रों से बहकी लहरें भी तो क्या!
हर लहर की किस्मत कहाँ किनारों से बंधी होती है।

कितनी ज़ुस्तजू सिर पे उठाएँ फ़िरती है यह ज़िंदगी।
रह गई ग़र मुरादें अधूरी, तो कहाँ यह राहें थमती है।

मुरादों का क्या, वो बैचैन है मंजिलों की ख़्वाहिश में।
कहाँ मंजिल की हर राह मुसाफिर का इश्क़ होती है।

जो मिला मुक़म्मल मिला, कोई कसक रूह में नही।
फ़िर क्यों, हर कसक को बरक़त से मिलना होता है।

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