अक्सर जब हम खुद की तलाश में निकलते हैं, तो क्या पाते हैं? खुद को पाने से कहीं ज्यादा हम उस नियति को पाते हैं, जिसके लिए हम पैदा हुए हैं। कभी कोई नियति को नहीं चुनता, बल्कि नियति जिसे चाहे उसे अपने अनुसार चुन लेती है। पर क्या सबको नियति ही चुनती है या कोई नियति को भी चुनता है ? किसी अपने की तलाश के विषम परिस्थितियों में की हुई यात्रा राह और राही के व्यक्तित्व को किस स्तर तक प्रभावित करती है। नियति के आगे हर कोई खिलौना है और क्या होता है जब सम्बंधो से दूर रहने वालो की जिंदगी में उन्हीं सम्बन्धो का आना तय होता है। खुद की तलाश, किसी टूटे विश्वास को जोड़ने का संकल्प और किसी गिरे हुए को उठाने के लिए दिए जाने वाले हाथ और एक छोटी सी मुक्कमल कोशिश का नाम ही 'दो मुसाफिर' है।