हासिल बेशुमार मिल्कियत जब रूह के छूने भर से पत्थर हो जाएँ और क़ायनात के अगणित सुकून जब ज़हन को चैन देने में नाकाफ़ी हो। टीस की पन्नी में लिपटी कोई कसक जब मन की गिरहों को उधेड़ती है तो रूह की पाक चादर पर बैठा ज़हनी बच्चा हथेलियों में खटकती मुराद समेट इलाही गिरह के खालीपन को लबरेज़ अता करने की माकूल कोशिश में बंजारे सा भटकता है। भटकता बचपन उन विरानी बस्तियों से क्या पाता है ! नादानियों में जो हासिल है क्या बचपन उसी की मुराद रखता है या जो बकाया रह गया उसकी तलाश भी रूह के ख़ालीपन को अरिक्त करने का ज़रिया है। ख़्वाहिशों की अप्राप्त मुरादों के बीच किसी नादान बचपन के ज़हन की कसक का अनकहा किस्सा कैसा होता होगा ! कुछ पाने की चाहत में बढ़ते कदम जब भटकते हैं तो रूह और जिस्म कैसे एक नादान परिंदे सा कैद होता होगा। हक़ीक़त और ख़्यालों के दरमियाँ फँसे उस नादान के रूह की आवाज़ को भला कौन सुनता है। अपने जब अपने क़रीब होते हैं तो कैसे हर मुश्क़िल से पार पाना सम्भव है। कैसे एक ख़्यालाती दुनिया के वहम में फँसे एक बच्चे को उसका वालिद उसे अपनी दुनिया बख़्शीश करता है। एक पिता कितनी परेशानियों से लड़कर अपने बच्चे की इबादत में हक़ीक़त लिखता है। एक वालिद, एक बेटा, यह दुनिया, बेशुमार मुरादें और किसी परेशान रूह की पीड़ा को समेटते पन्नो के नाम  आपकी महरूम

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